परचाहियां जैसे हैं साथ नहीं छोड़ती
शायद ऐसे ही हैं कुछ अजीब पल चल रहे मेरे साथ
घनघोर कर देते हैं जब आते हैं दिन में याद
और सूनी कर देते हैं हर अँधेरी रात
कभी सोचती हूँ कि क्या रौशनी में भी
होता है ऐसा अजीब सा सूनापन
कि हर बात लगने लगती है अजीब
और हर शब्द कर देता है विचलित यह मन
अँधेरा उजाला, सब हो जाये जब एक सामान
तब सुन्न हो जाते हैं एहसास
क्या तब लालसा होती है बदलाव की?
क्या होती है शोर कि प्यास?
क्या चाहिए तुझे?
बता भी दे मुझे आज
इस उधेड़बुन का ओः अन्वेषक
है क्या सही इलाज?
शायद ऐसे ही हैं कुछ अजीब पल चल रहे मेरे साथ
घनघोर कर देते हैं जब आते हैं दिन में याद
और सूनी कर देते हैं हर अँधेरी रात
कभी सोचती हूँ कि क्या रौशनी में भी
होता है ऐसा अजीब सा सूनापन
कि हर बात लगने लगती है अजीब
और हर शब्द कर देता है विचलित यह मन
अँधेरा उजाला, सब हो जाये जब एक सामान
तब सुन्न हो जाते हैं एहसास
क्या तब लालसा होती है बदलाव की?
क्या होती है शोर कि प्यास?
क्या चाहिए तुझे?
बता भी दे मुझे आज
इस उधेड़बुन का ओः अन्वेषक
है क्या सही इलाज?
- Diary of an Oxymoron
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