Wednesday, 19 March 2014

शब्द - निशब्द

यह कविता मेरी
नहीं कोई ज़रिया मुझे जान्ने का
यह तोह बस एक दूर का मृगजल है
पास आओगे, तोह छुह हो जायेगा!
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अदृश्य दीवारें जो दिखाई देती हैं
कल्पना कि उपज हैं तुम्हारी
मेरे इस टेढ़े मेढ़े दर्पण में न देखो
खुद को अनजान समझने लगोगे

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लहरें आती हैं, लहरें जाती हैं
किनारा वहीँ का वहीँ रेह जाता है
लहरें तोह शायद किनारे का फिर भी सोच लें
किनारे को कभी किसी एक लहर पे रोते देखा है?
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चाहे कहो उसे धुप या सूरज निराला
है वोह बारिश के तीर, पानी कि बहती ज्वाला
कभी रेगित्सान कि मिटटी और कभी बंजर यह ज़मीन
कभी मीठी सी खुश्बू, कभी बेरंग नमकीन

उड़ती चिड़िया, जुडी हुई जड़ें
अनसुना संगीत, शान्ति कहीं है खड़े
आग या हवा, अनजान एक कहानी
कैसे शुरू करोगे सुनानी?
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जो लम्हे अभी जीए नहीं
उनको सोच के क्यूँ ए दिल तू है परेशान
जिनमें सांस ले रहा है ए राही
उसमें क्यूँ नहीं छोड़ देता अपने कुछ निशान


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