Friday 4 July 2014

मद्धम मद्धम

वो हवाएं जब चुपके से मेरी ज़ुल्फ़ों में चली आयी
ऐसा लगा कि तुमने कुछ कहा है
फिर तोह एक आहात भी सन्नाटे में शोर लगने लगी
खो जाने में कि खुश थी मैं

कभी तेज़ और कभी नरम
वोह हवा थी कभी ठंडी और कभी थोड़ी गरम
पर हर एक झोंके ने दिलाया यह एहसास
कि न चाहते हुए भी, शायद तुम हो पास

सोचा था एक दिन सच कहूँगी मैंने भी
की क्या होगा जब एहसास हो जायेगा नम
उस दिन जब हवा नहीं करेगी मुझे स्पर्श
क्या दुनिया मेरी जायेगी थम?

मद्धम मद्धम तुम चलो, शांत रहूँ मैं भी
उस समय के गीले एहसास में
क्या दोनों खो जायेंगे?
या खोने में पा लेंगे एक दुसरे को हम?

यह जो शब्द हैं अटके हुए
या भावनाएं हैं दबी कहीं
उस हवा के एक झोंके से
क्या सब बेह जायेगा, या जायेगा थम?

- Diary of an Oxymoron 

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