Wednesday 26 April 2017

shabd, akshar aur lavz

वोह रात न जाने क्यों इतनी थी अकेली
न जाने क्यों फिर भी था उसका कलेजा सुकून में डूबा
उजाले में खेले सवालों ने बुनी थी जो पहेली
उसका जवाब मिलना था, जैसे मिलना कोई अजूबा
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तुम कहते हो जानते हो मुझे
पहचान शब्द के हैं कई मतलब
समय से कुछ नहीं होता
कई बार सालों बीत जाते हैं अनजान रिश्ते में
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कहानियां कई हैं इस कलेजे में दबी हुई
बताना भले ही नहीं हो आसान
पर खुद को हूँ मैं सुनाती कई रातों को
क्यूंकि नहीं बनना चाहती मैं खुद से अनजान
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वक़्त किसी को लाता है करीब
किसी को बना देता है सबसे पराया
इस वक़्त के खेल से क्यों विचलित हो जाता है मन
इसने तोह न जाने कितनो को अनचाहा नृत्य है कराया
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