Wednesday 12 March 2014

परचाहियां

परचाहियां जैसे हैं साथ नहीं छोड़ती
शायद ऐसे ही हैं कुछ अजीब पल चल रहे मेरे साथ
घनघोर कर देते हैं जब आते हैं दिन में याद
और सूनी कर देते हैं हर अँधेरी रात

कभी सोचती हूँ कि क्या रौशनी में भी
होता है ऐसा अजीब सा सूनापन
कि हर बात लगने लगती है अजीब
और हर शब्द कर देता है विचलित यह मन

अँधेरा उजाला, सब हो जाये जब एक सामान
तब सुन्न हो जाते हैं एहसास
क्या तब लालसा होती है बदलाव की?
क्या होती है शोर कि प्यास?

क्या चाहिए तुझे?
बता भी दे मुझे आज
इस उधेड़बुन का ओः अन्वेषक
है क्या सही इलाज?

- Diary of an Oxymoron 

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