Sunday 2 March 2014

उम्मीद

एक छोटी सी अलमारी में
एक एक करके संजोया था हर खवाब
कुछ हो गए जो पूरे, सम्भाला उन्हें भी
जो थे अधूरे, वोह रोज़ करते थे बेताब

अलमारी भले ही थी छोटी
थी मुझे बहुत ही प्यारी
इस अनजान दुनिया और लोगों के बीच
लगती थी मुझे वोह मेरी दुनिया सारी

फिर धीरे धीरे उसमें जमा हुआ आवंछित सामान
खोये जा रहे थे सपने सुहाने
क्या अलमारी लगने लगी थी छोटी ?
या लगने लगे थे कपडे सब पुराने?

शायद था वोह आवंछित सामान भारी
खाये जा रहा था उसके अंदर कि निर्मलता
या फिर शायद खोखली थी उसकी खुद कि लकड़ी
जोह नहीं समझ पायी सपनो कि सरलता

सुंदरता से जब लिया रूप उसने भयानक
काटने लगी हर एक चीज़
सपने तोह शायद खो ही गए थे
टूटते दरवाज़े करने लगे थे शोर अजीब

फिर जब आया एक भयानक भूकम्प
माप लिया उस अलमारी कि मज़बूती
देह गई कुछ पल में जैसे हो कोई लेहर
और ले गई संग हर उम्मीद वोह झूठी

जब खोखली हुई दीवारें,
सपनों का रंग पढ़ा फीका
जाना हमने कि जी रहे थे एक झूठ
शायद ज़िंदगी को और समझने का यह था एक तरीका

आगे बढ़ने कि कोशिश करनी थी कठिन
पर उम्मीद नहीं थी छोड़नी
फिर एक अलमारी बनाने का सोचा
फिर एक सपना सजाने का सोचा

पर इस बार ध्यान देना था ज़रूरी
फिर ठोकर नहीं खानी थी न
पर आगे क्या होगा किसने है देखा
बढे हम क्युंकि, जीवन कि गाडी चलनी थी न

उम्मीद अभी भी है जगी हुई
पर पुरानी अलमारी का गम भी है ज़िंदा
न जाने कब फिर खुलेगा ये पिंजर मन
न जाने कब मुक्त होगा यह परिंदा

-Diary of an Oxymoron 

No comments:

Post a Comment