Wednesday 26 March 2014

अटकी हुई

मैं हूँ नहीं परेशां आज फिर भी
न जाने किस बात कि बैचैनी है उलझा रही
जो वक़्त चला गया वोह दिखाई है दे रहा
जो जी रही हूँ वोह न जाने क्यूँ नहीं लगता सही

आगे जो होना है उसका किसको है पता
इस बात में नहीं हूँ मैं आज डूबी हुई
फिर भी न जाने क्या बात है उलझाये हुए
कि अटकी हुई है मेरे समय कि हर एक सुई

वक़्त भले ही है दौड़ रहा
थमी हुई हैं मेरी हर सांस आज
कैसे सुलझाऊँ मैं हर एक अपनी उधेड़बुन
इस असमंजस का कब मिलेगा कोई इलाज

जान नहीं, पहचान नहीं, फिर भी अटकी हुई हूँ मैं कहीं

- Diary of an Oxymoron 

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