Friday 7 March 2014

अक्षरों में जो न समां पाये

एक बादल कुछ अजीब सा
सर के ऊपर है छाया
न जाने कैसे वोह बना इतना विशाल
न जाने कैसे खंघोर हुआ उसका साया

कुछ लव्ज़ अटके हुए हैं मेरे इस संगीत में
नहीं करने देते कथन को पूरा
क्या रुक जाऊं जब तक नहीं मिल जाता सही अंत?
या फिर छोड़ दूं इस असमंजस को अधूरा?

लिखते लिखते हूँ रुक जाती
चलते चलते थम जाती हूँ मैं कहीं
आधी कहानी जब लाये आक्रोश कि ज्वाला
कहीं खो जाती हूँ एक दम से वहीँ

कभी आंसू साथ नहीं देते
और कभी हसी ही नहीं है रूकती
जब चेहरे पे हो ख़ुशी सुहानी दिखती
दिल की हर नस है कहीं न कहीं दुखती

अक्षरों में जो न समां पाये
वोह एहसास हर वक़्त है याद रहता
थम जाए कहीं ये वोह कहानी कहाँ
क्युंकि हर मनोभाव यहाँ है दरिया कि तरह बहता

कौन रोक पायेगा, इस मूक तूफ़ान को?

-Diary of an Oxymoron 

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